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Vijeta Pandey

Abstract Tragedy

4.5  

Vijeta Pandey

Abstract Tragedy

बढ़ता अंधेरा

बढ़ता अंधेरा

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जब विवेक, मन से हार कर,

फेंका जाए उतार कर।

पाला जाये अंधेरों को,

छुपा दबा के सवेरों को।

इच्छा में लिप्त नर कोई,

तब लालसाई बेल उगाता है।

मनुष्यता का संघर्ष काल,

आरम्भ तभी हो जाता है।


मन के मालिक है, बताकर,

सीना गुब्बारा कर लिया।

हैवान होने की गली का,

फिर रुख़ दुबारा कर लिया।

अब कोई ईश्वर-अल्लाह भी,

तुमको कैसे समझाएगा।

तुम्हारे नादान शौक में,

फिर अदना मारा जायेगा।

ईमान, आदतों की लत से,

जब ज़हन में सो जाता है

मनुष्यता का संघर्ष काल,

आरम्भ तभी हो जाता है


रसूक का डंका बजाने,

सारे जहान में।

निकले हैं मन के नंगे,

देखिये उतान में ।

बच लेंगे दुबक लेंगे कमजोर,

जिगर के सारे।

कुछ कहेंगे, नंगे से भला,

सर कौन मारे।

अरे! इन्सान होने का,

कोई सबूत तो दीजिये।

गर मर गयी है वेदना,

हृदय ही त्याग दीजिये।

जब समाज ज़ुल्म की,

ग़ुलामी को मान जाता है।

मनुष्यता का संघर्ष काल,

आरम्भ तभी हो जाता है


अब याद भी रहता नहीं,

किस बाग के माली हैं हम।

मान बैठे दाता किसे,

भक्त भी जाली हैं हम ।

अब मति की खिड़कियां

खोलने का वक़्त आ गया,

ग़लतफहमियों की नींद

तोड़ने का वक़्त आ गया।

जब आम की हुंकार से,

ख़ास का सिंहासन हिल जाता है

मनुष्यता का संघर्ष तभी

प्रारब्ध अपना पाता है।


मनुष्यता का संघर्ष तभी

प्रारब्ध अपना पाता है।



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