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Vijeta Pandey

Abstract

4.8  

Vijeta Pandey

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प्रश्न उठे हैं

प्रश्न उठे हैं

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देह के भान से ऊपर उठकर

जिन्हे शीश नमाये गगन भी झुककर

उन न्यारो का पता बता दो

जाये जो उन तक राह दिखा दो


धरा पर उनका सूखा क्यूं है

कहां गये सारे वो धुरंधर

प्रश्न उठे है मन के अंदर

क्यूं रख्खू अन्दर ही अंदर


इतिहास के स्वर्णिम पन्नो में

वेदों के मधुरिम छ्नदो में

कुछ ज्ञान और भी जोड़े जो

विस्तार कलम से बोले जो


वो वेद पुराण के लेखनकार

हैं विलुप्त कहां,सारे वो पुरन्दर

प्रश्न उठे है मन के अंदर

क्यूं रख्खू अन्दर ही अंदर


जाती धर्म का भेद नहीं था

रंग रूप का खेद नहीं था

देवों से मात पिता थे होते

भाई बंधु हिल मिल कर बोते


वो बीज प्यार के खोये कैसे

उगा बबूल आम से कैसे

काया धरती की हूई भयंकर


हैं कहां सोये सारे उत्कंधर

प्रश्न उठे है मन के अंदर

क्यूं रख्खू अन्दर ही अंदर


जिसकी लीला वो ही कारन

उसके पथ कछु नाही हारन

फिर हर दर क्यूं पैसों का खेल

मुक्त का लालच से क्या मेल


आभा रूप की धूमिल करते

आंखो में टीसन है भरते

दुनिया दीन के लूटने वाले

है समझे खुद को क्यूं दशकंधर

प्रश्न उठे है मन के अंदर

क्यूं रख्खू अन्दर ही अंदर


तुम आकर मेरी प्यास बुझाओ

प्रश्न की अग्नि को राह दिखाओ

आस तुम्हारी एक योगंधर

प्रश्न बूझो मेरे मन के अंदर

जो जलते अन्दर ही अंदर।


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