पलायन
पलायन
भाग रहा छोड़ कर अपने चाहत की दुनिया
आया था अरमानों के आकाश में
चाहत दौलत दुनियां का विश्वास।
अकेला अब कारवाँ मकसद को
भागते दौड़ते लोगों का हुजूम।
रेला ही रेला अपनी अरमानों के आसमान में
तन मन जिंदगी की पहचान अपना गँवा दी।
बगियाँ और बाग़ नदिया और तालाब
भूमि के भाव भावना का मंदिर
बचपन की यादे माँ बाप का साथ।
आये थे छोड़ अपने वजूद का वज्म
जहाँ से शुरू हुई थी जिंदगी की नज्म।
क्या नहीं दिया, बचपन को गोद दिया
जवानी का जज्बा दिया जितना
तुमने चाहा हुनर हुनर दिया।
बचपन से जवानी को पाला, दिया नेवला
जब मुझको तुम पर गुरुर का वक्त आया।
तब तुम अपने बचपन से जवानी की
विरासत छोड़ चल दिए।
झुग्गी चोपड़ी की तलाश में
जकात की जिंदगी की राह में।
दिन रात खून पसीने की शक्ल में बहते
भारत के कोनों कोनो से आये इंसान ही
भारत के कोने कोने में दिहाड़ी मजदूर कहलाते।
किसी तरह घुट घुट कर जीते
तिल तिल खुदा भगवान को कोसते।
खुद में कोई दोष नज़र ही नहीं आता
गावँ में उनके माँ बाप इनके नाम पे रोते।
साल में एकाध बार गावँ आते आपने लिये
लाले माँ बाप घर परिवार के लिये क्या लाते।
कभी दुदकरे जाते माँ माटी मानुष
के नाम पर भगाए निकाले जाते।
अपने ही देश में अनजाने से अपनी
पहचान को दर दर भटकते जिंदगी गुजरती।
कभी कोरोना के भय से भागते उस माँ के
आँचल की और जहाँ जन्मे और जवान हुए।
वो तो गावँ गरीब का है फिर
अपने दामन में समेट लेगी।
अपनी संतान को और उसके हिफाजत में जो भी
उसके बस में होगा करेगी जतन, उपाय।
पेट भरेगी देगी चेहरे की
मुस्कान प्यार की पहचान।
मगर उसके मन की टिस
खुद के खुदगर्ज बेटे का दर्द।
उसके दिल धड़कन,
की धड़कन धक् धक से कराहती।
कहती जब पैदा होते ही
मेरे सीने पर रखा था पहला कदम।
मेरे सीने पर मेरे अहंकार का तेरा कदम।
एक माँ जिसके स्तन पान के
दूध के क़र्ज़ फ़र्ज़ का तेरा हर कदम।
मेरे सीने पे तेरी धड़कन का
लम्हा लम्हा कदम माँ दोनों ही है हम।
तो क्यों भगाता है, जननी और
धरती को छोड़ पैदा किया पाला।
तो जिंदगी के अरमानों का
जमीं आकाश भी माएं दो हम।
क्यों व्यर्थ में इधर उधर भगता तू
अपने हुनर से अपने जननी धरती माओं को
क्यों नहीं सजा अपने अरमान सवंरता।
यहाँ तेरे सभी अरमानों का जमीं
आकाश का पता पहचान हैं।
तू जननी की जान तो मेरे कण कण की ईमान है।
तुझे ना कोई भगा सकता,
ना ही कोई हमारे दामन से छिन सकता।
यहाँ प्यार, दुलार, सम्मान की औलाद का फौलाद है
दिहाड़ी का मजबूर मजदूर नहीं
जिसकी नहीं कोई नहीं पहचान।
फुटपाथ झुग्गी, झोपड़ी
बदहाली से दौड़ता भगाता परेशान।
तो मत जा मेरे बेटे अपने अरमानों की चाह में
दिहाड़ी में झोंकने अपनी ताकत आग की भठ्ठी में
कुछ नहीं पाओगे बहुत पछताओगे
कभी भागोगे कभी भगाए जाओगे।
अंत में कही लावारिश गुमनाम हो जाओगे
या लौटोगे गावँ में भी अनकही
अनबुझ पहेली बनकर रह जाओगे
इसिलिए कहती है तुम्हारी हम माएं दो कही मत जाना।
तुम जननी और धरती के नूर
नज़र नज़र नज़र नज़राना।
तुम्हारी मैं ही दो माताएं धर्म कर्म
दिन ईमान जिन्दंगी की बुनियाद आसमान।
