नारी
नारी


नारी न केवल श्रद्धा है
न आस्था
न भक्ति
न शक्ति
बल्कि एक एक विश्वास है
जीवन की डोर का।
नारी मेह है
स्नेह है
प्रेम रुपी पथ का।
नारी एक हिस्सा है
समाज का।
नारी एक किस्सा है
सभ्यता की देन का...
नारी पूज्य प्रार्थना है
देवालय की...
नारी अस्मिता है
रिश्तों के भावों की
गहन विचारों की।
है इसके रूप अनेक
कभी आर्या
तो कभी भार्या
कभी जननी
तो कभी जगतदायिनी
माँ सरस्वती और
माँ दुर्गा का रूप यह
रिद्धि-सिद्धि का स्वरूप यह।
फिर भी कुछ विरोधाभास है
इन सबका होता हमें भी एहसास है।
आज नारी केवल नारी नहीं
बल्कि सभ्यता की होड़ में
इस समाज में एक सबल प्रतिद्वन्द्वी है
प्रतिपक्षी है
समकक्ष है
समानांतर है
सम्पूर्ण पुरुष वर्ग के।
आज वह संघर्षरत है
अपनी अस्मिता को
अपने अस्तित्व को
अपने स्त्रीत्व को
बचाए रखने के लिए...
और उसका यह अनवरत संघर्ष
सतत जारी है
उसके अपने घर में
समाज में
शहर में
गाँव में
देश में
विदेश में
लोक में
परलोक में
और यह संघर्ष सतत जारी ही रहेगा ...
तब तक जब तक
नारी केवल नारी है
मात्र अबला नारी
जिसे अबला बनाया है
इस प्रबुद्ध समाज की सोच ने....