पिता, घर से दूर
पिता, घर से दूर
वो दूर बैठा घर से ना जाने
कैसे अपने दिन काटता होगा,
ना जाने किससे अपने मन
की बातें बांचता होगा,
ना जाने रात की तन्हाई में
कितनी करवटें बदलता होगा,
ना जाने कितनी बार
अपनी खिड़कियों की
सिलवटों से उसे झाँकता होगा,
क्या सिर्फ हमें ही
ऐतबार है अपने इश्क़ पर,
वो भी तो अपनी बेगम की याद में,
अल्ताफ रज़ा के गाने पर कभी हँसता,
मुस्कराता आहें भरता होगा,
वो नन्ही परी उसके बड़े बड
़े
ख्वाब ना जाने कैसे पूरा करता होगा,
ना जाने कितने निवाले त्याग,
उनकी ख्वाहिशों पर मरहम लेपता होगा।
ना जाने कितने तालिब - ए - दीदार
की आतिश में जलता होगा,
फिर हार कर,
ना जाने, किस मुद्दत से वो
हमें ही पार करता होगा,
क्या उस हॉस्टल के कमरे की
तन्हाई में बैठ हमें ही दर्द है
सबों के रुखसत हो जाने का,
वो भी तो खुद टूटा हुआ,
अपने मासूमों के - कभी
बिखरे सपने समेटता होगा,
कभी उनकी संवेदनाएँ समझता होगा।