बूँद ये बारिश की...!
बूँद ये बारिश की...!
निर्झर-सी झरती
श्वेत
पारदर्शी
नन्ही-सी
प्यारी-सी
बूँद ये सावन के
मदमस्त फुहार की।
कभी प्रेमिका के गालों से लुढ़कती
तो कभी किसान के श्याम तन से टपकती
बूँद ये अल्हड़ सावन के
फुहार की।
कभी माँ के आँचल से लिपटती
तो कभी दादी के माथे चढ़ जाती
बूँद ये नाज़ुक सी।
कभी गाँव की पगडंडियों को नापती
तो कभी शहर की घनी बस्तियों को जाँचती
बूँद ये सावन के हंसीं बयार की।
कभी शांत सरिता में गोते लगाती
तो कभी विशाल सिंधु का तिलक बन जाती
बूँद ये विशाल सिंधुमय सावन की।
ये न केवल बूँद है
बल्कि जीवन का बिंदु है
धरती का श्रृंगार है
प्रकृति का उपहार है
जीवन का आधार है
मन की क्रीड़ा है
कवि हृदय की पीड़ा है
और न जाने कितनी ही
उपमाएँ है
न जाने कितने उपमेय का उपमान है
नन्ही-सी बूँद ये बारिश की।
कहने को तो हाथ से लुढ़कती
सरकती
फिसलती
सिमटती है
सावन में
बूँद ये बारिश की।
पर इस फिसलन में भी कितना कुछ कहती है
बूँद ये बारिश की।