मेरी अभिलाषा
मेरी अभिलाषा
आज मुझमें भी अभिलाषा जगी
मैं भी एक कविता लिखूं।
और कवियत्री बन जाऊं।
या फिर अपने यू टयूब चैनल का
सृजन कर अपनी प्रतिभा पर इतराऊं
और अपनी पाक कला से सबको रिझाऊं।
या अपने अनूठे घरेलू नुस्खों से
अपनी पृथक् पहचान बनाऊं।
वैसे कविता से मेरा ये
प्रथम साक्षात्कार नहीं है।
मेरे कुछ पुरस्कार
स्वागत कक्ष में सजे हैं।
शैशव पर लिखूं या इठलाते यौवन पर।
प्रकृति पर लिखूं या ईश भक्ति पर।
नारी शक्ति पर लिखूं या
उसकी मिथ्या प्रगति पर।
पर तनिक ठहर कर संभल कर।
बीते समय के व्रणों की महीन
किरचों को निकाल दूं हौले से।
केवल आंचल को साक्षी रहने दूं
अश्रुबिंदु की सिंधु धारा का।
उन्हें संगरोध कर दूं ओर
उन्हें रेड ज़ोन में ही रहने दूं।
फिर सोचती हूं लिखूं दोगले
समाज के वृहद विषय पर।
उसकी अकर्मण्यता पर
उसकी संकीर्ण मानसिकता पर या
जीवन की रिकत्ता पर।
जिसमे कुछ स्पष्ट सा कुछ धुंधला सा दिखेगा,
कुछ कुछ ऑरेंज ज़ोन जैसा।
या चलो आज कुछ श्रृंगार की बातें करती हूं।
कुछ प्रणय की कुछ मनुहार की बातें करती हूं।
और अपनी अभिव्यक्ति को
ग्रीन ज़ोन में ही रहने देती हूं।
अपनी कविता को ग्रीन ज़ोन में ही रहने देती हूं।
