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Rati Choubey

Abstract

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Rati Choubey

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सुनो

सुनो

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268


सुनों

क्या ?

इस अनजान सफ़र में

‌‌‌‌‌‌‌‌'मै' और' तुम'

उतंग शिखर से गिरी जलधारा सी शांत

निर्लिप्त, एकाकी तुम कौन ?

तुम कौन ?

तुम भी तो इसी अनजान सफ़र में मेरै साथ हो ना

जाने कब तक हम यूं ही उतंग शिखर से

बहती जलधारा बन 'मै' और

भाव जलधारा बन 'तुम' बहते रहेंगे ‌?

पर किनारा कहां होगा ? मेरे अनजाने हमसफर बोलो ?

हम दोनो ही अनभिज्ञ

हां हां हां हां हां

हमसफर अट्टाहास कर उठा

मन भागता था रहा है, एक 'मृगतृष्णा"मै

कैसे ? क्या करें ? अनजान सफ़र है पर चले जा रहे हैं,

कोई और ना छोर बस एक विश्वास शायद ?

कुछ नहीं सूझ रहा शायद सही दिशा दिख जावे

यूं ही चलते चलते हमारै गनत्व की ?

पर‌ कुछ तो करना होगा ?

‌‌‌ठीक‌ है

करता तुम मुझ पर विश्वास कर सकती हो।

मैं भी तुम्हारे लिये अनजान, और

अजनबी ही हूं । पर इस अनजान सफ़र में तुम्हें धोखा ना दूंगा ।

सच (मुस्करा उठी वो)

हां सच

तो चलते हैं

कहां ?

हम आतुर से इस अनजान, बियाबान,

अनंत सफर में दोनोें अपरिचित ‌,और

एकाकी है ।हम दोनों ही अपनी बौराई

आंखों से अपना गन्तव्य खोज रहे‌ हैं ।

चलना बहुत दूर है, पता नहीं कब तक यूं

चलते रहेंगे ।

हां पता नहीं

पहले कदम तो उठाओ यह सोचकर की

शायद सही जगह पहुंच जायेगें ।

‌‌‌‌। पर सुनों तुमने नाम नहीं

बताया अपना ?

‌‌‌‌ तुमने पूछा ही नहीं मैं' संध्या'

और वह खिलखिला उठी

चलो तुम हंसी तो मै 'रवि'

तुम भी खामोश, मैं भी खामोश, रास्ते में

खामोश चारों ओर खामोशियां,धुंध ही

धुंध कैसे कटेगा यह सफर, अनजान

राहें ओफ्हो

‌। सुनों

कुछ आवाजें आ रही हैं

‌‌‌कहां?

दूर बहुत दूर से ध्यान से सुनो

हां पक्षियों की चहचहाहट,वृक्षों

के पत्तों की सरसराहट सी, ऊपर से गिरते

झरने का मधुर सा संगीत, अब यह

सफर अनजान नहीं लग‌ रहा

‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌क्यों?

‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌क्योंकि तुम जो साथ हो,

अब चाहे ये सफर कितना ही लम्बा हो कट ही

जानेगा ।

संध्या मुस्करा उठी

वो देखो अब धीरेधीरे सांझ भी अपने

कोमल कदमों से रवि के पास आसमान में आ रही है।

'रवि' भी अस्ताचल की ओर जाने की तैयारी में है

सुनों संध्या

क्या? बुरा तो नहीं मानोगी ?

नहीं बोलो तो

मैं तुम्हारे साथ जीना चाहता हूं

पर

कोई सवाल ना करो ?

ठीक है

तो चले

कहां?

‌‌‌‌‌दूर बहुत दूर 'क्षितिज' के उस पार

वहां क्यों ?

जहां सिर्फ हम दोनों अनजान राही साथी बन रहे और कोई नहीं बस' मै'

और तुम मैं 'पथदीप ' जला कर चहुं और रोशनी कर दूंगा ।

संध्या भावविभोर हो गई

" पथदीप" तो ज़रा दोगे

पर

ह्रदय दीप जला पावोगे

साथी तो बन जावोगे

पर

साथ निभा पालोगे ?

दो अनजान सफ़र राहगीरों की संकल्पपूर्ण,मधुसिक्त, बारे सुन आकाश

लालिमायुक्त हो गया, प्रकृति खिलखिला

उठी

दूर मंदिरों में घंटाध्वनियां होने लगी

शंखनाद से गुंजायमान नभ

मस्जिदों में अंजान की आवाज

गुरुद्धारों से वाहे गुरु,वाहे गुरु के मधुर

स्वरों से वायुमंडल गूंज उठा

अनजान सफ़र के‌ राही एक दूसरे की

बाहों में थे अपनापन महक‌ उठा,वृक्षों ने

पुष्पवर्षा कर डाली,,

यूं "अनजान सफर' में कभी कभी

दो रिश्ते जुड़ जाते‌हैं जो बेशकीमती,अनमोल, अकथनीय, होते हैं

उम्रभर के लिए नेह की सांसें एक दूसरे से जुड़े जाती हैं,

बेनामी रिश्ते 'गठबंधन' में जुड़ जाते हैं,एक नाम दे देते हे अपने

'अनजान सफ़र 'को जो अपरिभाषी होता है,

और वो ' अनजान सफ़र ' सदा के लिए

'जीवन सफर' बन अविस्मरणीय हो जाता है।


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