छोटी -छोटी सी बात
छोटी -छोटी सी बात
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याद है मुझे ,बरसों पहले
अवगुंठित वधू वेश में
सकुचाई आई थी इस घर में।
अंधेरी बीती रात में ,
घर ने हँसकर मुझे
भर लिया था बाँहों में ,
लेकिन चीजों से मेरा परिचय
नहीं हो पाया था -यह याद है मुझे।
अंधेरा जो था ,सब अधजागे
अधसोये से थे -लोग और चीजें भी ।
अंधेरा आकृतियों की पहचान
लील जो लेता है।
भोर की अँखुआईं किरण के आने के
पहले ही आदतन मैं जागी थी
सबसे पहले ....
उस भिनसारे में ,घर के भीतर दबे पैरों
दाखिल होती धूप की फैलती उजास में
मेरी जान -पहचान की शुरूआत हुई थी
घर के लोगों से और न जाने कितनी चीजों से।
यह बरसों पहले की बात है !
बरामदे की रेलिंग से घर के बीच
चौकोर आँगन दीखा और ,
कुछ और भी देखा मैंने कि बस
चिहुँक सी गई -चक्की (जाँता )?
शहर के घर में इसका क्या काम ?
किससे पूछती ,नया माहौल और
अनजाने लोगों का संकोच !
धीरे-धीरे तो जान ही गई कि
बड़ी अम्माँ अपने दोनों पैरों को
जाँते के दोनों ओर फैलाये
अरहर ,चना ,मसूर ,चावल को
सूप से फटकती ,भर -भर मुट्ठी दाल
जाँते में डालती जातीं और शुरु हो जाती
उनकी घर ,परिवार ,गाँव ,मोहल्ले की
चटपटी
,खट्टी -मीठी और कभी-कभार
तीखी -कड़वी ,छोटी -बड़ी कहानियाँ
और किस्से ,याद है मुझे जबकि यह
बरसों पहले की बात है !
कभी-कभी तो दिन -दिन भर हम
सम्मोहन में बँधे उन किस्सों के ,
कब शाम का अंधेरा चोर की तरह
उस छोटे कमरे में घुस आया ,
हम जान ही न पाते और उधर
शाम उतरने के साथ ही बड़ी अम्माँ के
अनवरत घूम रहे हाथों के लय के साथ -साथ
जाँते में गिरती रहर ,मसूर और चना
कब दालों की शक्ल अख्तियार कर लेते
हम कैसे जान पाते ?हम तो बड़ी अम्माँ के
किस्सों में मशगूल थे -बहुत बरस हो गये
इस बात को ,लेकिन मुझे याद है।
चना सत्तू की शक्ल में बदल ,बेसन की
सोंधी महक में डूब ,जब हमारे सामने
जमीन पर बिखर जाती ढ़ेरियों में
तब टूटता तिलिस्म बड़ी अम्माँ के किस्सों का।
तब हमपर जाहिर होता बड़ी अम्माँ और जाँते की
मिली -जुली साजिश ,जो चूल्हे पर चढ़ी
देगची से सोंधी -सोंधी महक उड़ाती है ।
वैसे तो यह बरसों पुरानी बात है ,लेकिन
मुझे अब भी याद आती है जब कुकर में
पक रही दाल में बरसों पहले की जज्ब
वही सोंधी महक मैं तलाशती रह जाती हूँ।
न जाने क्यों बरसों पुरानी वह बात
आज भी याद है मुझे ......