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Dr. Anu Somayajula

Abstract

4.5  

Dr. Anu Somayajula

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बरगद

बरगद

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387


यह जो

बरगद का पेड़ तना है -

सैंकड़ों शिराएं

धरती की छाती में गाड़े

जाने कब से खड़ा है;


यह जो

बरगद का पेड़ तना है -

अनगिनत शाखों पातों का

विस्तृत वितान ताने

न जाने कब से खड़ा है;


यह जो

बरगद का पेड़ तना है -

घन छायादार सही

दे पाता किंतु बयार नहीं,

अकड़ा अकड़ा सा यह

न जाने कब से खड़ा है;


दूब जो पसरी जाती मैदानों में

बिरले ही उग पाती

इसके आंचल में;

अपने अहम् का भार लिए यह

न जाने कब से खड़ा है;


यह

बरगद का पेड़ घना है,

साए में फूटे कोंपल को

किंतु

सूरज की प्यास है,

एक किरण की आस है,

निर्लिप्त योगी सा पर

यह न जाने कब से खड़ा है;


इस बरगद की शाखों पर भी

हमने

झूले डाले हैं,

ऊंची ऊंची पींगें ली हैं;

तज अमराई

पर कोयल ना आई

नीरसता इसकी

तनिक न उसको भाई;

ना होता किंचित भी विचलित

ऐसे ही यह

न जाने कब से खड़ा है;


यह जो

बरगद का पेड़ तना है -

जितना ऊपर

उतना ही धरती के भीतर,

निर्विकार सब बूझ रहा

न जाने कब से ऐसे ही खड़ा है;


यह जो

बरगद का पेड़ तना है -

ना जाने कब से यूं ही खड़ा है

थकता नहीं यह,

पकता नहीं यह,

ऐसे ही

चुक जाता है,

बरगद -

योगनिद्रा में लीन

बस चुपके से मर जाता है ।         


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