हर शख्स
हर शख्स
इनको कहिए मुंतजिर ए फर्दा ख्वाब ख़्वाब सी आंखें
जिसके आने के इंतजार में ढलीं आफताब सी आंखें
चांदनी मदहोश, कि सूरज शाम रोते रोते डूब गया
रात हैरां अब्र ने पलकों में मूंद ली महताब सी आंखें
जिंदगी एक मरहुमी में डूबी आग के सिवा क्या रही
अना ही वो क्या जो ना उठें जल इंकिलाब सी आंखें
मुझको हैरत है कि अब किसी बात पे हैरत क्यूं नहीं
देखते देखते दुनिया से फिर गईं इज़्तिराब सी आंखें
रुखसार पे ढुलके हुए आंसुओं की कजरारी लकीरें
बरसात की रात में मुसाफिर के असबाब सी आंखें
कुछ भी नहीं है मेरे पास बस चंद एहसासों के सिवा
दो आंखें है खोई खोई जिंदगी के हिसाब सी आंखें
वो कहता बहुत कुछ है मगर नजर नहीं मिलाता अब
हर शख्स की एक असलियत हैं ये किताब सी आंखें
तुम कहो ना कहो कुछ तो उलझन है दिल में मगर
मुझसे कुछ तो बोलती हैं जाने क्या जवाब सी आंखें
हर किसी को उम्मीद की आयेगी जश्न ए बहारां कभी
गमों में डूबते डूबते डूब गईं ग़मगीन अजाब सी आंखें
जिंदगी तो दोहरा रही है वही वाक़ये उसी एक ढर्रे पर
प्यार, धोखा, नफरत, दौलत, गरज में हैं दवाब सी आंखें
नजर बीनाई की धार पैनी हो तो दिल से सवाल करें
बहुत बुज़ुर्ग सी चेहरे में उग आई हैं शादाब सी आंखें
