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Alka Ranjan

Tragedy

4  

Alka Ranjan

Tragedy

बिटिया हूँ मैं

बिटिया हूँ मैं

2 mins
231


बिटिया हूँ मैं..

हंसती खेलती खिलखिलाती,

प्यार बांटती, सबको हंसाती

सारे घर की जान हूँ मैं...

चाहूं पढ़ना, कुछ करना मैं

पर पापा की आय को भी समझूँ मैं

ज़िद नहीं कोई, हर हाल में खुश

बिटिया हूँ मैं....


बढ़ती उम्र... चाहूं के पंख लगा के उड़ जाऊं

बन के परी झूमूं, नाचूं और गाऊं

पर ये क्या, शादी का बंधन

पापा की है मर्जी, सम्मान करती हूँ मैं

बिटिया हूँ मैं....


होता है कितना मुश्किल,

नया घर, नई जिम्मेदारियां

नए रिश्तों के साथ

पर अम्मा ने दी सीख,

कर के हर कर्तव्यों का निर्वाह

बनाना सबके दिल में जगह,

मिले जो कोई काम

करना नहीं तब उफ्फ ... हाय राम !

जी.. जी...करते बीत गए तब कई साल

जब इक रोज़ हुई ज़ेवर की मांग

पूरी कर दी झट जब मैंने उनकी ये मांग

बोले मुझसे पैसे लाओ...

गिन गिन कर पाई पाई जोड़े मैंने कुछ पैसे चार

देकर उनको मैंने किया प्रणाम

पर पाया सिर्फ तिरस्कार..अपमान

दो शब्दों का ये उत्तर उनका

माता पिता को बुलाओ

पर क्यों, जो था उनके पास सब तो दिया

अब कुछ बचा नहीं है उनके पास

आवाक होकर तब मैंने सुना..

"तो फ़िर हैं क्यों वो जिंदा आज"

क्रूरता की दी तब उन्होंने पहचान,

सताया, रुलाया...

तन मन में दिए घाव हज़ार

डरी... सहमी

मैं थी चुप, सब सहती वहां

अम्मा ने दी थी सीख

पिया का घर ही है अब तेरा घर

उठाती कैसे मैं आवाज़

बिटिया हूँ मैं....


फिर इक दिन हो गई हर इंतेहा पार

धुआँ धुआँ सा छाया चारों ओर

केसरिया रंगों का चढ़ा तब मुझपे हार

घुट घुट कर हो गए सारे अरमां राख

फिर इक बार दहेज़ के लिए हो गई इक बिटिया कुर्बान

अधूरी अधूरी सी रह गई फ़िर कोई दास्तां ।।



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