कीमत
कीमत
बेच रहा बैठा मेले में वो कुछ बीते लम्हे,
उजड़े सावन और जेठ बैसाख थे,
पर बाकी थोड़े से बसंत थे,
उसके माथे पर एक शिकन थी,
ना जाने किस आस में सांसे बाकी थी,
धुआं धुआं सब मिटता देखा था,
उसने एक उमर को अपने सामने जलते देखा था,
कांपते हाथों में लिए पोठली वो बैठा है,
इस रंगीन मेले में वो राख बेचने निकला है,
बाकी क्या कुछ भी नही,
लगता है टटोला ही नहीं,
उम्मीद की एक महीन डोरी है,
उस डोरी में उसकी उलझी ज़िंदगी हैं,
सुबह से बैठा है वो कोई तो खरीदे उसकी राख को,
टूट गया वो टुकड़ों में जो क़दम बढ़ाए उसने आगे बढ़ने को,
जो ढली दोपहर वो समेट सब,
निकल दिया ना जाने किस ओर,
बैठा किसी टूटी छप्पर के नीचे,
फिर दोहराता होगा लम्हे बीते।