बिरहा-गीत
बिरहा-गीत


तुम्हें कैसे लिखूं मैं चिठियाँ गमगार मेरे
शब्द खो गए है मेरे और कलम ना चले
बात इतनी है पुरानी कि हमको याद नहीं
कितने बरसों हो गए हैं तुमको देखे मिले
मेरी आंखों में तो बरसों से नींद नहीं
तू तो सोती है, चल ख्वाब में ही मिल ले
दिल यह क्या लगा, तुमसे क्या हरजाई
कैसे भी न फुसले, एक पल को न टले
मेरी रूह पर अंधेरा है इस तरह काबिज़
रोज सूरज चढ़ता है पर ना मेरी रात ढले
सुर्ख ख्वाबों की गर्म राख में हूँ घिर
ा
अरमानों के अंगारों में, बस दिल ये जले
गम के जुगनू तप कर सूरज बन गए
आंसुओं के समंदर अब आंखों में है पले
अब तो हिचकी भी ना पूछती हाल मेरा
तुमको मैं याद भी हूँ कैसे तसल्ली मिले
आंखें पत्थर ही चलीं, बेजान हुई उम्मीदें
आस का न कोई पंछी मुंडेर पे बोले
मेरी हर सांस तक करती है जिक्र तेरा
तुझको ही ढूंढते है, जब भी कदम चलें
आरजू है तेरे दीदार की इक झलक ही सही
उसके बाद, चाहे जान मेरी, खुदा ले ले