बहुत दिन हो गए
बहुत दिन हो गए
बहुत दिन हो गए, कलम खोल कर नहीं देखा,
जुबान बझ सी गयी है, कभी बोल कर नहीं देखा,
ज़िन्दगी में वजन कुछ कम, तो हो गया है शायद,
ज़मीर को एहसास तो है पंकज,
पर अभी तोल कर नहीं देखा।
सांस चल रही है, धड़कन धक धक सी है,
पलकों के ऊपर भार नीचे दफन शर्म सी है,
न चाल में आवारगी
है, न तबस्सुम में शोखियां,
खुद की कीमत का पता नहीं पंकज,
अभी ज़ज़्बात को मोल कर नहीं देखा।
मेरी बातों के मायने अक्सर कुछ और ही निकले हैं,
हम भी हादसों के कुछ एक दौर से निकले हैं,
मेरे माझी ने मुस्तकबिल पर असर किया इतना,
खुद मैं जज्ब किये थे जो सपने पंकज,
उन सपनों को कभी खोल कर नहीं देखा।