बगुला भगत
बगुला भगत
बगुला भगत
एक था बगुला दुबला-पतला।
थका हुआ सा भक्त ज्यों पगला।।
युक्ति एक सोच कर मन डोला।
तालाब किनारे जाकर वह बोला।।
सूखेगा जब पानी अब इसका।
नहीं मिलेगा तब खाना तिनका।।
एक-एक कर सब मर जाओगे।
बात नहीं मानी तो पछताओगे।।
मैंने देखा है एक सुंदर झरना।
उसका काम है पानी भरना।।
बहुत बड़ा पानी का तालाब।
सदा ही रहता जिसमें आब।।
खूब मिलेगा खाना सबको।
मैं जाऊंगा वहीं पर अब तो।।
जलचर बोले....
दादा जी! नहीं छोड़ कर जाना।
साथ हमें तुम अपने ले जाना।।
लेकिन हम उड़ना नहीं जानते।
आप हमारी मुश्किल पहचानते।।
साथी सच्चा हूंँ मैं सदा आपका ।
धर्म निभाऊंगा मैं सगे बाप सा।।
मेरे पंखों पर सब चढ़ कर चलना।
जहाँ जलाशय है वहीं उतरना।।
बात सभी को पसंद यह आ गयी।
सबके मन को यह युक्ति भा गयी।।
तब जाने लगे पीठ चढ़ जलचर।
बीच राह वह खाता उन्हें छककर।।
सेहत बनी चमकदार हुए उसके पर।
संशय सबको उसे हृष्ट-पुष्ट देखकर।।
आयी जब एक केकड़े की बारी ।
उसने पहले ही से कर ली तैयारी।।
बीच राह देखा जब हड्डियों का ढेर।
क्यों भाई बगुले ! यह कैसा अंधेर ?
सुन केकड़े ! आयी है अब तेरी बारी।
मेरा ग्रास बनने की कर ले तैयारी।।
अरे भगत जी ! हम तुझे जान न पाए।
धोखा खाकर सब यहाँ प्राण गंवाए।।
अब ऐसा मैं आगे नहीं होने दूँगा।
गर्दन जकड़ कर बदला जब लूंगा।।
खत्म हुई तब बगुले की कहानी।
घर गया केकड़ा कही मुंह जबानी।।
कभी किसी के झांसे में मत आना।
अपनी किस्मत खुद आप बनाना।।
बड़े-बड़े बहुरुपिए हैं इस जग में।
जिनकी गिनती होती महा ठग में।।
ऊपर से जो लगते संत महात्मा।
अंदर से उनकी मरी है अंतरात्मा।।