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KUMAR अविनाश

Children Stories Inspirational

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KUMAR अविनाश

Children Stories Inspirational

स्वंय की पहचान

स्वंय की पहचान

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विवेकानंद कहा करते थे, एक सिंहनी गर्भवती थी। वह छलांग लगाती थी एक टीले पर से। छलांग के झटके में उसका बच्चा गर्भ से गिर गया, गर्भपात हो गया। 


वह तो छलांग लगा कर चली भी गई, 

लेकिन नीचे से भेड़ों का एक 

झुंड निकलता था, 

वह बच्चा भेड़ों में गिर गया। 

वह बच्चा बच गया। 

वह भेड़ों में बड़ा हुआ। 

वह भेड़ों जैसा ही रिरियाता, 

मिमियाता। वह भेड़ों के 

बीच ही सरक—सरक कर, 

घिसट—घिसट कर चलता। 

उसने भेड़—चाल सीख ली। 


और कोई उपाय भी न था, 

क्योंकि बच्चे तो अनुकरण से सीखते हैं। 

जिनको उसने अपने आस—पास देखा, 

उन्हीं से उसने अपने जीवन 

का अर्थ भी समझा, 

यही मैं हूं। और तो और, 

आदमी भी कुछ नहीं करता, 


वह तो सिंह—शावक था, 

वह तो क्या करता? 

उसने यही जाना कि मैं भेड़ हूं। 

अपने को तो सीधा देखने 

का कोई उपाय नहीं था; 

दूसरों को देखता था अपने 

चारों तरफ वैसी ही उसकी 

मान्यता बन गई, 

कि मैं भेड़ हूं। 

वह भेड़ों जैसा डरता। 

और भेड़ें भी उससे राजी हो गईं; 

उन्हीं में बड़ा हुआ, 

तो भेड़ों ने कभी उसकी 

चिंता नहीं ली। 

भेड़ें भी उसे भेड़ ही मानतीं।


ऐसे वर्षों बीत गये। 

वह सिंह बहुत बड़ा हो गया, 

वह भेड़ों से बहुत ऊपर उठ गया। 

उसका बड़ा विराट शरीर, 

लेकिन फिर भी वह 

चलता भेड़ों के झुंड में। 

और जरा—सी घबड़ाहट की हालत होती, 

तो भेड़ें भागती, वह भी भागता। 

उसने कभी जाना ही नहीं कि वह सिंह है। 

था तो सिंह, लेकिन भूल गया। 

सिंह से ‘न होने’ का तो 

कोई उपाय न था, 

लेकिन विस्मृति हो गई।


फिर एक दिन ऐसा हुआ कि 

एक बूढ़े सिंह ने हमला किया 

भेड़ों के उस झुंड पर। 

वह बूढ़ा सिंह तो चौंक गया, 

वह तो विश्वास ही न कर सका 

कि एक जवान सिंह, सुंदर, 

बलशाली, भेड़ों के बीच 

घसर—पसर भागा जा रहा है, 


और भेड़ें उससे घबड़ा नहीं रहीं। 

और इस के सिंह को देखकर सब भागे, 

बेतहाशा भागे, रोते—चिल्लाते भागे। 

इस बूढ़े सिंह को भूख लगी थी, 

लेकिन भूख भूल गई। 


इसे तो यह चमत्कार समझ 

में न आया कि यह हो क्या रहा है? 

ऐसा तो कभी न सुना, 

न आंखों देखा। 

न कानों सुना, 

आंखों देखा; 

यह हुआ क्या?


वह भागा। 

उसने भेड़ों की तो 

फिक्र छोड़ दी, 

वह सिंह को पकड़ने भागा। 

बामुश्किल पकड़ पाया : 

क्योंकि था तो वह भी सिंह; 

भागता तो सिंह की चाल से था, 

समझा अपने को भेड़ था। 

और यह बूढ़ा सिंह था, 

वह जवान सिंह था। 

बामुश्किल से पकड़ पाया। 


जब पकड़ लिया, 

तो वह रिरियाने लगा, 

मिमियाने लगा। 

सिंह ने कहा, अबे चुप! 

एक सीमा होती है 

किसी बात की। 

यह तू कर क्या रहा है? 

यह तू धोखा किसको दे रहा है?


वह तो घिसट 

कर भागने लगा। 

वह तो कहने लगा, 

क्षमा करो महाराज, 

मुझे जाने दो! 


लेकिन वह बूढ़ा सिंह माना नहीं, 

उसे घसीट कर ले गया नदी के किनारे। 

नदी के शांत जल में, उसने 

कहा जरा झांक कर देख। 


दोनों ने झांका। उस युवा 

सिंह ने देखा कि मेरा चेहरा 

और इस बूढ़े सिंह का चेहरा 

तो बिलकुल एक जैसा है। 


बस एक क्षण में क्रांति घट गई। 

‘कोई औषधि नहीं!’ 

हुंकार निकाल गया 

गर्जना निकल गई, 


पहाड़ कंप गये आसपास के! 

कुछ कहने की जरूरत न रही। 

कुछ उसे बूढ़े सिंह ने कहा भी 

नहीं—सदगुरु रहा होगा! 

दिखा दिया, दर्शन करा दिया। 

जैसे ही पानी में झलक देखी

हम तो दोनों एक जैसे हैं.


बात भूल गई। वह जो वर्षों 

तक भेड़ की धारणा थी, 

वह एक क्षण में टूट गई। 

उदघोषणा करनी न पड़ी, 

उदघोषणा हो गई। 

हुंकार निकल गया। 

क्रांति घट गई।...


सदगुरु के सत्संग का इतना 

ही अर्थ होता है कि वह तुम्हें 

घसीट कर वहां ले जाये, 


जहा तुम उसके चेहरे और अपने 

चेहरे को मिला कर देख पाओ, 

जहां तुम उसके भीतर के अंतरतम को, 

अपने अंतरतम के साथ मिला कर देख पाओ। 

गर्जना हो जाती है, 

एक क्षण में हो जाती है।


सत्संग का अर्थ ही यही है कि 

किसी ऐसे व्यक्ति के 

पास बैठना, उठना, 


जिसे अपने स्वरूप का बोध हो गया है; 

शायद उसके पास बैठते—बैठते 

संक्रामक हो जाये बात; 


शायद उसकी मौजूदगी में उसकी आंखों में, 

उसके इशारों में तुम्हारे 

भीतर सोया हुआ सिंह जाग जाये।


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