नवोदय की होली
नवोदय की होली
जिक्र हो होली का महफिल में,
तो नवोदय का नाम अपने आप ही आता है।
जमीं की जन्नत है वो यक़ीनन,
जो हर त्योहार एक साथ मनाया जाता है।
ये उन दिनों की बात है जब,
हम हॉस्टल की चारदिवारी में हुआ करते थे।
तब होली में घर जाने का नहीं,
बस दोस्तों के साथ रंग जमाने की दुआ करते थे।
वो होलिका की रात अलग होती थी,
रात में एक अलग ही माहौल होता था।
जहाँ मूंछे न बना दी जाये सोचकर,
रात में हर कोई बड़ी देर से सोता था।
रंगों से हर कोई खेल लेता है,
कीचड़ की होली की एक अलग ही बात थी।
वो एक ही रंग में रंग जाना हमारा,
जिस संसार में न कभी कोई जात पात थी।
नज़रें चुरा के निहारना किसी का
किसी को,
प्रेम छिपा न पाने वाला ये एक त्योहार था।
वो "उसे" प्यार से रंग लगाने की कशिश
जिस दिन मिलना किसी से बड़ा ही दुश्वार था।
होली के अगले दिन से इन्तज़ार शुरु,
कि अगली बार में कैसी धूम मचानी है।
नहीं सोचेंगे नहाने के लिये एक बार,
पर पता है; होली पर बारिश कैसे करानी है।
ऐसी होती थी होली मेरे नवोदय की,
जिसने वो पल जिये मानों एक ज़िन्दगानी है।
कितनी बातें हो जाती है लिखो तो लेकिन,
सच में! कभी खत्म न होने वाली कहानी है।
होली के अगले दिन से इन्तज़ार शुरु,
कि अगली बार में कैसी धूम मचानी है।
नहीं सोचेंगे नहाने के लिये एक बार,
पर पता है; होली पर बारिश कैसे करानी है।