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ca. Ratan Kumar Agarwala

Tragedy Others Children

4  

ca. Ratan Kumar Agarwala

Tragedy Others Children

और शायद एक जिन्दगी बच जाती

और शायद एक जिन्दगी बच जाती

3 mins
232


फिर वही फोन की घंटी,

एक चीखती आवाज़,

जिन्दगी की सताई हुई,

जिन्दगी से हारी हुई,

और फिर, गहन चुप्पी…..

और एक जिन्दगी ख़त्म,

कोटा में और एक विद्यार्थी ने की आत्महत्या।

– पर आखिर क्यूँ?

 

किसने दी आत्मदाह की सलाह?

किसने सुझाई मौत की यह राह?

क्यूँ मिट गई जिन्दा रहने की चाह?

क्यूँ हो रहे शिक्षा के नाम आत्मदाह?

क्यूँ नहीं लेता कोई इस बात की थाह?

क्यूँ नहीं करता समाज इसकी परवाह?

 

माता पिता की बच्चों से बढ़ती आशा,

बच्चों की कुछ करने की अभिलाषा,

फिर पढ़ाई के नाम बढ़ती हुई निराशा,

कुछ हासिल न होने पर बढ़ती हताशा,

और फिर- एक गहन चुप्पी,

और एक जिन्दगी ख़त्म।

 

भेजा था माता पिता ने बड़े चाव से,

बच्चे ने लगाया ख़ुद को दाँव पे,

“चाह रहे हैं मुझसे कुछ मेरे ही अपने,

तो क्यूँ न पूरे करूँ उनके मैं सपने”?

और इसी जद्दोजहद में पढ़ने गया,

कोचिंग संस्थानों की भेड़चाल में फंस गया,

“अरे उसे तो इतने अच्छे प्रतिशत मिले हैं,

तुम्हें इतने कम ही क्यूँ मिले हैं?

थोड़ी मेहनत और करते तो

शायद तुम्हारा चयन हो जाता।

क्या ठीक से पढ़ाई नहीं की?

इतना वक़्त गँवाया, इतने पैसे गंवा दिए?

क्या माता पिता को यह दिन दिखाने के लिए?”

 

और जिन्दगी के दो पाटों में पिसते हुए,

माँ पिता की चाह में कुछ पढ़ते हुए,

कुछ हासिल करने की ललक लिए,

कि “काश डॉक्टर या इंजीनियर बन जाता,

कि काश सबको मेरा हुनर दिख जाता,

पा जाता कोई अच्छी सी नौकरी,

मिलती तब मुझे भी लाखों की सैलरी”

 

पर कहाँ, यह सब तो था बहुत दूर,

सपने सारे ही हुए चकनाचूर,

जिन्दगी से भागने को हृदय आतुर,

मन को लगी थी चोट भी प्रचुर,

हो रही थी मन में घोर वेदना,

कैसे सहन करता यह मानसिक यातना,

फिर वही फोन की घंटी,

एक चीखती आवाज़,

जिन्दगी की सताई हुई,

जिन्दगी से हारी हुई,

और फिर, गहन चुप्पी…..

एक जिन्दगी और ख़त्म।

 

जाने कैसा यह दौर है आया,

जिन्दगी में कैसा शोर पनपाया,

जिन्दगी से ही भरोसा उठ गया,

ये कैसा क़हर बरपाया?

आत्मदाह का मार्ग अपनाया

क्यूँ बच्चों को यह सपना दिखाया?

क्यूँ – आखिर क्यूँ?

 

शायद एक जिन्दगी बच सकती थी,

शायद जिन्दगी कुछ अच्छी निभ सकती थी।

हर बच्चे की अलग एक कहानी,

फिर क्यूँ ले आते हम ऐसी सुनामी?

किस बात की है अंधी दौड़?

क्यूँ है जिन्दगी में ऐसी होड़?

 

और फिर मान लो बन भी गए

डाक्टर या फिर इंजीनियर?

उसके बाद क्या, एक प्रश्न चिन्ह,

अनसुलझा सा,

और भटकाव इधर उधर,

ढंग की कोई नौकरी नहीं,

लाखों की वह सैलरी नहीं।

हर तरफ घोर निराशा,

मन में हताशा बेतहाशा।

और फिर बच गई एक ही राह,

मिट गई मन से जिन्दगी की चाह,

फिर वही फोन की घंटी,

एक चीखती आवाज़,

जिन्दगी की सताई हुई,

जिन्दगी से हारी हुई,

और फिर, गहन चुप्पी…..

और एक जिन्दगी ख़त्म।

 

काश वक़्त रहते सब समझ जाते,

जिन्दगी का बेहतर मार्ग अपनाते,

अपनी राह वह ख़ुद ही चुनते,

अपने मार्ग पर ख़ुद ही चलते,

जिन्दगी के फैसले ख़ुद कर पाते,

अपनी चाहतों को आगे रख पाते,

तो शायद एक जिन्दगी बच जाती,

फोन पर चीखने की आवाज़ न आती,

एक माँ अपनी छाती न पीटती,

एक पिता को आत्मग्लानि न होती,

जिन्दगी कुछ अलग ही हो जाती,

और शायद एक जिन्दगी बच जाती,

शायद…….।

 



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