बेरोजगारी
बेरोजगारी
नौकरी के चक्कर में इंसान फिरता है मारा-मारा,
अपना घर-परिवार छोड़ता है मजबूरी में बेचारा।
लगी रहती है आश आज नहीं तो कल बेहतर होगा,
कल-कल करते-करते उम्र ढल रही आख़िर अब कब होगा।
उम्र के साथ-साथ घर की जिम्मेदारियां हैं बढ़ती,
अब सोचों की आख़िर उसका घर कैसे चलता होगा।
उसने सोचा कि चलो किसी योजना में ही काम करते हैं,
आख़िर कुछ पैसों से ही घर का ख़र्चा तो चलाते हैं।
न दिन,न रात बस मेहनत कर काम को अंजाम देते हैं,
फिर भी पदाधिकारी सिर्फ काम की फरियाद करते हैं।
चाहे जैसी हो स्थिति वो तो सिर्फ़ आदेश करते हैं,
न सुनी उसने तो नौकरी से बाहर का फरमान करते हैं।
कर्मचारियों के आए पैसे भी हज़म करने का इख्तियार रखते हैं,
काम के साथ-साथ हराम के पैसों की जुगाड़ करते हैं।
मानो वो मालिक हैं,ख़ुद किसी की नौकरी नहीं करते हैं,
जब किसी ग़लती पर ख़ुद पर पड़ी लात तो एहसास करते हैं।
वैसे भी योजनाओं का उद्देश्य है चंद दिनों में कार्य समाप्त करना,
फिर उन युवकों को दुबारा बेरोजगार कर देना।
योजना बंद के बाद नियोक्ता को चाहिए अन्य कार्य में सम्मिलित करना,
पर अधिकांशतः उनका पेशा है पूर्व कर्मचारियों को पहचानने से इनकार करना।
एक कहता है कि योजना तो सरकार की थी हम क्या करें,
दूजा कहता है कि कर्मचारी को कंपनी के थे तो हम क्या करें।
बस इसी तरह बजता है तबला इन बेरोजगार युवकों का,
पुनः रोजगार के नाम पर सरकार व नियोक्ता दोनों कन्नी काट जाते हैं।