हालात-ए-मजदूर
हालात-ए-मजदूर
तन पर कपड़े फटे हुए व पैरों में चप्पल टूटी हुई लिए,
चल पड़ा परदेश बेचारा घर का भरण पोषण के लिए।
प्यास की शिद्दत व भूख को मिटाने के लिए,
कड़ी धूप में भी मेहनत करता दो पैसे कमाने के लिए।
मेहनत जी तोड़ करता परिवार को ख़ुश रखने के लिए,
चल पड़ता है वो राहों में अपने भी कुछ अरमान लिए।
मिल जाएगी ठंग की मजूरी तो बन जाएगा कुछ काम,
करना पड़ता है हर काम दो वक़्त की रोटी के लिए।
घर में सब बैठे हैं अपनी-अपनी एक उम्मीदें लिए,
लेकिन हाथ कुछ है नहीं कैसे जाऊँ त्यौहार मनाने के लिए।
अरमानों में पानी फिर जाता है पल दो पल के लिए,
सब कुछ भूल कर फिर लग जाता हूँ सपने पूरे करने के लिए।
वो काम भी करता फिर भी बातें सुनता उन महलों के अमीरों से,
जिन महलों को तपती धूप में बनाया था मिलकर इन मजदूरों ने।
मजदूर, किसान मेहनत करता वो कोई लाचार व मजबूर नहीं,
रहमान बाँदवी वो मेहनत-मशक्क़त करता परिवार की ख़ुशी के लिए।
