बेला
बेला
सिद्धपुष्प मुस्कान के शिखी स्कन्ध
अर्जुनछवि निखार रही गंध – सुगंध
सुर-सरगम की तरलता तन तारक सम
घनघोर घटा बन छाई महा – आनंद।
घेरे हुए अँधियारा दिगन्त के उस पार
तनी हुई दिशाओं में गझिन तुहिन कोर
कैद में पड़ी हुई है दिनकर की भोर
देख – देख मंद मुस्काई किरण हर छोर।
राही का शिथिल सुस्त पड़ा मुख
निश्चल खड़ी हुई वह भी कुछ पल
गतिमान वह धंसे कहीं गहन सघन
ययी-पन्थ दुखदायी चले वह हर पल।
आते ही रहते हैं क्षण-क्षण पूजक-दल
कुछ चुनते फूल-फल कुछ नैन-सजल
आकंठ तक भरती जाती स्वर-अमंद
भविष्य निहारती डगर आम्र कदंब-बल।