बेबसी से संकल्प तक
बेबसी से संकल्प तक
मजबूरी क्या है?
बस एहसास है,
एक ही क्षण में,
कई मौतें मरने का
स्वाभिमान को दफना कर
बस जिन्दा लाश होने का।
अपमान के कडवे घूंटों को
हंसते - हंसते सहने का।
और फिर मुस्कराकर
बनावटी जीवन जीने का ।
मजबूरी क्या है?
अहंकार के सामने
सिर झुकाकर
जुल्मों को सहने का
निर्दोष होकर भी
दोषी ठहराए जाने का।
ताकत के सामने
लाचारी रूपी मौन धर
असहाय, रूपी हाथ जोड़
अनाथ, गुलाम ,बेबसी
के घाव सह
सब कुछ चुप्पी धरने का।
मजबूरी क्या है?
एक चुप्पी में
सहे गए हजारों दर्द,
कभी न खत्म होने वाली
अधूरी उम्मीदों का बोझ,
स्वप्नों का मर जाना,
और फिर भी
आँखों में झिलमिलाती रोशनी का दिखावा करना।
मजबूरी भी शाश्वत नहीं,
जो आएगी,
तो जाएगी भी।
संघर्ष की ज्वाला में तपकर,
लाचारी की जंजीरें टूटेंगी,
सहनशीलता की धरती से
नया आत्मबल फूटेगा।
बेचारी, लाचारी जैसे शब्द मिटेंगे,
दुष्टों के अन्याय का अंत होगा,
मजबूरी नहीं, अब संकल्प होगा,
हर पीड़ा पर विजय का मंत्र होगा।
