अज्ञान
अज्ञान
पढ़ ली भागवत गीता मैंने
प्राप्त कर लिया जगत ज्ञान,
रिश्ते सारे मिथ्या हैं
संसार एक माया है।
सब कुछ समझा
सब कुछ जाना,
फिर भी मोह न तज पाया।
धृतराष्ट्र रूपी मैं
पुत्र मोह में फँसा रहा,
देख अनुचित आचरण भी
आँखें अपनी मुंदा रहा,
पढ़ ली भगवत गीता मैंने
फिर भी मोह न तज पाया।
दुर्योधन रूपी मैं
पद- प्रतिष्ठा के मद में
औरों को नीचा दिखाता रहा,
वास्तविकता को भुलाकर
सत्ता के मद में चूर
अधर्म ही करता रहा,
पढ़ ली भागवत गीता मैंने
फिर भी मोह न तज पाया।
दुशासन सा अहं पाला
अपमान औरों का करता रहा,
बल के मद में अंधा हो
कमजोरों को दबाता रहा,
पढ़ ली भागवत गीता मैंने
फिर भी मोह न तज पाया।
इस नश्वर काया को
सजाने में
घंटों मैं लगा रहा,
मोह माया में फँसा मैं
बस मंदिर-मंदिर घूमता रहा।
सभी कामनाओं में लिप्त मैं
खुद में ईश्वर को खोज ना सका,
भागवत गीता पढ़ ली मैंने
फिर भी मोह न तज पाया।