बेबस बचपन
बेबस बचपन
ये बचपन भी कितना,
जिम्मेदार बन गया है,
चेहरे की खुशियाँ भी,
न जाने कहाँ गुम हो गया है।
बचपन की किलकारियाँ,
आज बोझ से तम है,
उनके कंधे पर ये बोझ,
किसी गम से कम है।
बच्चों का घर आंगन आज,
वीराना-सा दिख रहा है,
न जाने क्यों वो गुलामी-सी,
ज़िन्दगी जी रहा है।
बचपन की ज़िन्दगी,
एक कैद-सा बन गया है,
शिक्षित समाज में आज भी,
ये क्या हो रहा है।
होनी थी जिनके हाथो में,
खिलौने किताबों की,
खुशियाँ रूठ-सी गई हैं,
इनकी ज़िन्दगी की।
अब तो इंसान भी,
हैवान नज़र आ रहा है,
जो उनकी मजबूरियों का,
फायदा उठा रहा है।
चेहरे से उनकी हँसी,
गुम-सी हो रही है,
कूड़े-कचरे के ढेर में वो,
अपना जीवन ढूँढ रही है।
क्यों हम जान कर भी,
अनजान बन रहे हैं,
आखिर सभ्य समाज में ये,
कैसी निशानी छोड़ रहे हैं।