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Vijay Kumar

Drama

5.0  

Vijay Kumar

Drama

बेबस बचपन

बेबस बचपन

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ये बचपन भी कितना,

जिम्मेदार बन गया है,

चेहरे की खुशियाँ भी,

न जाने कहाँ गुम हो गया है।


बचपन की किलकारियाँ,

आज बोझ से तम है,

उनके कंधे पर ये बोझ,

किसी गम से कम है।


बच्चों का घर आंगन आज,

वीराना-सा दिख रहा है,

न जाने क्यों वो गुलामी-सी,

ज़िन्दगी जी रहा है।


बचपन की ज़िन्दगी,

एक कैद-सा बन गया है,

शिक्षित समाज में आज भी,

ये क्या हो रहा है।


होनी थी जिनके हाथो में,

खिलौने किताबों की,

खुशियाँ रूठ-सी गई हैं,

इनकी ज़िन्दगी की।


अब तो इंसान भी,

हैवान नज़र आ रहा है,

जो उनकी मजबूरियों का,

फायदा उठा रहा है।


चेहरे से उनकी हँसी,

गुम-सी हो रही है,

कूड़े-कचरे के ढेर में वो,

अपना जीवन ढूँढ रही है।


क्यों हम जान कर भी,

अनजान बन रहे हैं,

आखिर सभ्य समाज में ये,

कैसी निशानी छोड़ रहे हैं।


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