बदलते पल
बदलते पल
दबी- दबी, सहमी, थकी सांसे, सूखी सूखी, बेचैन ये आंखें,
ये खाली-खाली रास्ते, अब नहीं दिखते मंजिल पर जाने के वास्ते,
इस संक्रमित दौर में खोने की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है,
किसी ने तन, किसी ने धन, किसी ने जान, किसी ने पहचान,
किसी ने परिवार, तो किसी ने ख्वाब, किसी ने स्वाद और ना जाने क्या क्या खोया ।
मगर जब लिखने बैठा की, इस दौर में पाया हमने क्या, तो बैचेन ठहरा हुआ लंबा लम्हा और दबी, ढकी, सहमी हुई सांसों के ऊपर बेचैन निगाहों में एक नया ख्वाब नजर आया।
कुछ एहसास नए हुए, कुछ विश्वास कम हुए, जो हुआ, सबक के लिए हुआ, लम्हों में रुकावट भी जरूरी थी, इंसान को इंसानियत से पहचान भी जरुरी थी।
वह भी एक दौर था, ये भी एक दौर है, ना सुकून पहले था, ना चैन आज है ।।
बदलते पल का यही फरमान है ।।
