बदलता समाज
बदलता समाज
जैसे जैसे ये शामें ढल रही है
वैसे वैसे ये प्रकृति बदल रही है
पेड़ों से बात करने को अब चिड़िया नहीं है
बच्चों के पसंदीदा खिलौने अब गुड्डे गुड़िया नहीं है
अब चाहत नहीं है किसी को गाँव जाने की
सब चाहते है अपनी जिंदगी शहर में बिताने की
कृषि भी सिमट रही है अब धीरे - धीरे
उद्योग ने खींच दी है समाज में कई लकीरें
इस आधुनिकता ने भी क्या खूब सिखाया
नई पीढ़ी को
की जो ऊपर पहुँचाए तुम तोड़ दो उस
सीढ़ी को
बढ़ रही है खामोशी रिश्तों की अब बातों में
सच्चा प्रेम भाव बचा है अब सिर्फ खयालातों में
आज मानव को रोक दे ऐसी ना कोई बंदिश बची है
प्रगति की इस होड़ में बस एक रंजिश बची है
कई किस्से अधूरे से इस जीवन के छूट रहे है
जैसे जैसे दिन ये बीत रहे है
जैसे जैसे दिन ये बीत रहे है