STORYMIRROR

Sankit Sharma

Tragedy

5.0  

Sankit Sharma

Tragedy

बदलता समाज

बदलता समाज

1 min
866


जैसे जैसे ये शामें ढल रही है

वैसे वैसे ये प्रकृति बदल रही है


पेड़ों से बात करने को अब चिड़िया नहीं है

बच्चों के पसंदीदा खिलौने अब गुड्डे गुड़िया नहीं है


अब चाहत नहीं है किसी को गाँव जाने की

सब चाहते है अपनी जिंदगी शहर में बिताने की


कृषि भी सिमट रही है अब धीरे - धीरे

उद्योग ने खींच दी है समाज में कई लकीरें


इस आधुनिकता ने भी क्या खूब सिखाया

नई पीढ़ी को

की जो ऊपर पहुँचाए तुम तोड़ दो उस

सीढ़ी को


बढ़ रही है खामोशी रिश्तों की अब बातों में

सच्चा प्रेम भाव बचा है अब सिर्फ खयालातों में


आज मानव को रोक दे ऐसी ना कोई बंदिश बची है

प्रगति की इस होड़ में बस एक रंजिश बची है


कई किस्से अधूरे से इस जीवन के छूट रहे है

जैसे जैसे दिन ये बीत रहे है

जैसे जैसे दिन ये बीत रहे है



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy