अनकहा इश्क़
अनकहा इश्क़
कैसे समझे बात उसकी
कुछ कहा भी तो नहीं उसने
न कोई इशारा किया
न कोई किनारा किया
उलफत के चराग
जलाए रखता हूं मैं शाम ओ सुबह
कि उसकी आंखो में
शायद मेरी तस्वीर ही नजर आ जाए
चलते हुए सड़क पर
जब पीछे मुड़कर देखती है वो
कुछ कहना ही चाहती होगी
या कुछ सुनने का मन होगा शायद
चुपचाप उसका मेरे आगे चलना
आंखो - आंखो से बातें करना
मैं देखूं तो शर्माना वो उसका
मौसमी सुबह में फूल की तरह
खिल जाना उसका
मेरे दिल की हलचल
अक्सर मुझे बताती है
मेरी गैर मौजूदगी में वो
घबराना उसका
सुबह अगर उसके दीदार से हो
तो पूरा दिन हसीन गुजरता है
पर शाम आते आते सभी बातें प्यार की
एक प्रश्न बन जाती है
सुबह की भावनाएं सभी
उसकी या मेरी खामोशी में
कहीं उलझ जाती है
उलझनें होती ही इतनी उलझी हुई है कि
किसी भी सुलझे हुए शक्स को
उलझा देती है और छोड़ देती है उसे
तन्हाइयों में खुद से बातें करता हुआ।