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Phool Singh

Horror Tragedy Crime

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Phool Singh

Horror Tragedy Crime

बदचलन

बदचलन

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क्या दुविधा ये कैसी बेबसी

दुनियाँ सारी अपनाती है 

पुरुष तो बिकता बंध कोठे में

नारी सरेआम बिक जाती है।।


इच्छा-तमन्ना दोनों की मरती 

पूरी न हसरत कभी हो पाती है

फस जाते मजदार में ऐसी

जानें किस्मत क्या से क्या करवाती है।।


शेर से तनकर अब तक चलता

पलभर में चाकरी करते है

गरुर हुस्न हर पल करती

वो महखाने तक महकाती है।।


लब-हाथ कभी पांव को छूता

कभी शीश भी उसको नवाता है

पुरुष हमेशा पाक कहलाता

पर बदचलन नारी क्यूं हो जाती है।।


चरित्रहीन जिसे कहते विद्धान

न इसका कारण कभी बतलाते है 

चोरी-छुपे कोठे-घर को जाते

वो बन है तवायफ, पुरुष कैसे साफ-पवित्र हो जाते है।।


समस्या शुरू यहीं से होती

तुलना लैंगिक समानता की होती है 

पुरुष को मिलते आधिकार है सारे

नारी क्यूं अपना हक भी गवांती है।।


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