बैरी चाँद
बैरी चाँद
बैरी चाँद तुम इतने दूर क्यूँ जा बैठे,
कि मैं तुझसे बातें भी न कर पाती।
सारा दिन तुम कहाँ छुप जाते,
सिर्फ रातों को ही तुम निकलते।
बैरी चाँद तुम कितना मुझे हो सताते,
जब मैं रातों को सोने जाती।
तब तुम चेहरे पर मेरे चाँदनी बिखेरते,
मेरे पलकों को तुम धीरे से हो चूमते।
बैरी चाँद तुम मेरे मन की सारी बातें है जानता,
फिर भी दूर रहकर मुझ पर है हँसता।
काश तुम पास होते तो मैं,
कानों में तेरे सारी बातें कह देती।
बैरी चाँद तेरे इस लुका छुपी से ,
मेरे अंदर कैसी पीड़ा होती।
तुम जब आँखों से ओझल हो जाते,
जैसे लगता मेरे प्राण ही निकल जाते।
बैरी चाँद तेरी सुन्दरता
पर कितने मरते,
तुम पर कितने गाने, कविताएं सब लिखते।
तुमने कितनों के मन को है चुराया,
पर कभी भी किसी के पास नहीं आया।
बैरी चाँद पूर्णिमा की रात में जब तुम्हारी चाँदनी है बिखरती,
मानो सारी धरती दूध से है नहाती।
तुम्हारे इस नज़ारे को देखकर मन मचलता
तुमसे फिर से मिलने का मन करता।
बैरी चाँद जब तू बादलों के बीच छुप जाते,
मन न जाने भारी भारी सा हो जाता।
मेरी आँखे तेरे बाहर निकलने कि इन्तजार करती,
तुझे बाहर निकलते देखकर मेरा रोम रोम खिल उठता।
बैरी चाँद न जाने तुझसे कब प्रेम हो गया ,
तेरे इस बेदाग चेहरे का नूर मेरा हो गया।
तेरे इस लुका छुपी में ऐ चाँद,
कहीं मैं न हो जाऊँ बदनाम।