बात फूलों की
बात फूलों की
कभी कभी मुझे लगता है कि फूलों पर कोई कविता लिखूं.....
बाज़ार फ़िल्म के गाने 'फिर खिली रात बात फूलों की' वाले गाने की तरह....
कुछ कवी रोमांटिसिज्म पर कविता लिखते रहते है.....
जैसे रोमांटिसिज्म उनकी आदत हो....
वे चाँद तारें, फूलों और पंखुड़ियों पर भी कविता लिखते रहते है......
लेकिन मेरे जैसे हक़ीक़त पसंद कवी कैसे फूलों पर कविता लिख सकता है भला ?
इस दफ़ा मैं फूलों पर कोई कविता लिखने की कोशिश करती हूँ.....
मंदिर की घंटी या किसी झूमर की मानिंद दिखते रहते है ये अमलतास के चटख पीले फूल.....
भरी गर्मी में सूरज से नज़रें मिलाने की जुर्रत करते गुलमोहर के ये सुर्ख फूल....
मैं हर बार इन सारे फूलों की सुंदरता को एन्जॉय करती रहती हूँ.....
जब तब उनकी खूबसूरती को कैमरे में कैद करती रहती हूँ.....
इन फूलों को बाकी फूलों की तरह गिरते देखा है......
सारे फूल बेहद खामोशी से गिरते जाते है...सूख कर मिट्टी में मिल जाते है.....
मेरे मन मे खामोश गिरते इन फूलों के बारें मे कभी कोई ख़्याल नहीं आया...
ना ही मैंने कभी उनकी उदासी के बारें में भी कुछ सोचा.....
फिर फूलों पर लिखने का मुझे क्या कोई अधिकार भी है?
कैसे मैं लिखूं फूलों पर कोई कविता ?
शायद ही फूलों पर मैं कोई कविता लिख पाऊँ.....