बारिश क्या कहती है
बारिश क्या कहती है
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सुनो, बारिश क्या कहती है !
ये रिम-झिम – सी खामोश
अब कहां बरसती है,
मिज़ाज इसका बदलने लगा है,
क्रोध इसमें झलकने लगा है !
रूठती है तो मानती ही नहीं,
करो इंतजार और ये आती ही नहीं,
जब बरसती है तो कहर आ जाता है,
कहीं कोई बाढ़ में डूबा, तो
कहीं कोई सुखा ही रह जाता है !
पर, सदा न ऐसी बारिश हुआ
करती थी,
एक ठहराव था इसमें
एक सादगी हुआ करती थी !
आती थी यूं छम-छमाकर
मानो, नार-नवेली नकली
सज-संवरकर,
अब तो सबको हर लेना है,
फिर बरस बाद का मिलना !
आज जैसे क्रंदन में बरसती है,
किसी वेदना में तरसती है,
सुनो, बारिश क्या कहती है !!
धरा ने जो कुछ सहा
मेघों से शायद होगा कहा,
वृक्ष-वृन्त जो काटे गए
मनुज – स्वार्थ में छाटे गए,
व्यक्त न हो पाया तो क्या ?
लाल नहीं था रंग
रक्त न हो पाया तो क्या ?
रिक्त होता धरणी का आंचल
अब बादलों को सुहाता नहीं,
कलि का हो रहा तू दास
तेरा सर्वनाश, मानव, तुझे
दिखता नहीं !
रूद्र रूप ये शिव-वृष्टि का,
तेरे अतिक्रमण पर ये उत्तर सृष्टि का,
दे रही चेतावनी, चिखती-चिल्लाती है,
सुनो, बारिश क्या कहती है !!
सुनो, बारिश क्या कहती है !!