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Sheetal Raghav

Tragedy

4  

Sheetal Raghav

Tragedy

बाल विधवा:कोरा कागज सा मन

बाल विधवा:कोरा कागज सा मन

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मेरा तो मन,

एक कोरा कागज था,

स्वेत रंग सा,

निर्मल मन था मेरा,

ना कोई रंग, 

ना कोई खोट थी,

कोई मन में,

ना ही जीने की, 

चाह, 

ना ही कोई, 

उमंग ही थी मन में,

निश्छल नदी की,

धारा थी, 

कभी ना कोई रुकावट,

ना ही बाधा थी,

जीवन में बड़े से बड़ा,

आंधी तूफान भी, 

ना हिला पाता था

कदम, 

जीवन्त थी,

पर चट्टान से कम न थी, 

इतने गम सह कर भी

सच मानो जिंदा थी,

सांसे चल रही थी,

पर अपने जीवन पर

शर्मिंदा थी,

कटी पतंग सा था,

जीवन मेरा,

ना कोई डोर,

ना हवा ही संग थी,

सुनसान वीराने में,

न जाने किसने,

हलचल मचा दी, 

जीवन में फिर,

जीने की चाह बना दी,

देकर आशा,

एक निशा में मुझे,

सतरंगी रंगों की, 

एक लहर दौड़ा दी,

सुनसान था, 

जो जीवन, 

जिसने सिर्फ,

सन्नाटा और खामोशी थी, 

आवाज तो थी,

पर कभी खुद ने भी

नहीं सुनी थी,

देकर आवाज,

कंठ को मेरे,

मन में एक, 

मधुर सरगम सी बजा दी,

आज, 

पास मेरे सरगम भी है, 

सुर भी हैं, 

रंग भी है जीवन में, 

और जीने की,

चाहत भी, 

जो कुसूर ना था मेरा, 

मैंने उस कुसूर की भी, 

सजा पा ली, 

बाल विधवा थी,

कभी मै, 

एक मसीहे ने आकर, 

मेरी जीवन में, 

मेरी वीरान जिंदगी, 

सजा दी, 

थाम कर हाथ मेरा, 

मुझमे जीने की प्रति, 

चाहत भरी, 

आज जीवन पतंग सा,

लहरा उठा है, 

क्योंकि,

आज डोर, 

और

आसमां दोनों, 

मेरा हमसफ़र,

और हमसाया भी हैं,

जीवन कितना रंगीन होता है,

यह रंगहीन होने पर, 

समझ आता है, 

पर सज जाती है,

फिर शाम,

जब कोई मसीहा, 

आपको राह,

दिखाता है।।


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