मन की उलझन!!
मन की उलझन!!
आज जब छिलके,
प्याज के उतार रही थी,
लग रहा था जैसे,
अपने मन की उलझी,
परतें दर परतें,
निकाल रही हूं,
इतना पढ़ाया,
इतना लिखाया,
सुबह-सुबह ठंड की रातों में,
5:00 बजे नींद से उठाया,
बैरिस्टर बन जाने के,
लायक बनाया,
क्या फायदा पढ़ जाने का,
लिख जाने का,
और बैरिस्टर बाबू,
बन जाने का,
आज घर में रहकर,
कपड़े धो रही हूं,
बर्तन मांज रही हूं,
अपनी डिग्री को बस,
जाया किए जा रही हूं।
आंखों में प्याज के आंसू लिए,
परतें दर परतें ,
उसकी निकाल रही हूं,
अपने मन में ही उलझ गई हूं,
ना सज रही हूं और ना,
खुद को ही संवार रही हूं,
लगता है आज बाई बन,
>
घर में कैद हो,
बस पोंछा और,
घर पर झाड़ू निकाल रही हूं,
शायद कामवाली बाई के,
पास भी इतने काम ना होंगे,
जितने काम खुद के लिए,
निकाल रही हूं,
कभी बर्तन तो कभी,
धोबी की तरह बस,
कपड़े भर भर कर,
धोये जा रही हूं,
उस पर भी कसर,
रह गई तो,
आया बन पूरे दिन बस,
बच्चों की चाकरी,
और,
रसोई में जाकर,
पतिदेव की फरमाइश,
पूरी कर,
मास्टर शेफ घर में ही,
हुई जा रही हूं,
बैरिस्टर बाबू हूं,
तो क्या हुआ,
घर में रहकर बाईयों के,
एहसास को,
जीए जा रही हूं,
लग रहा है,
जैसे मन की उलझन की,
परतें दर परतें ,
एक बार फिर से निकाल रही हूं।।