बाज़ार
बाज़ार
मैं बाज़ार हूँ, एक जगह स्थिर खड़ा रहता हूँ।
दुनिया को पल-पल बदलते देखता रहता हूँ।
सब बिकता यहाँ, कला-कलम,खुदा-शैतान,
सुख-दुख,झूठ-सच,फरेब,जन्नत और श्मशान।
उम्र,शिक्षा भावनाएँ,रिश्ते,जिस्म और ईमान।
बस जेब में होने चाहिए चुकाने को वाजिब दाम।
देखता हूँ कई बार,टूटे दिल और फटी जेबों को।
भूख से बिलबिलाती आँतों और धंसी आँखों को।
जब हारती है उम्मीद ,चिपकती है पेट से पीठ,
तो वो भुखमरी से जूझते बदनसीब इंसान,
खुद ही बन जाते हैं,बाज़ार का बिकाऊ सामान।
यूँ तो दुनिया काफ़ी बदल गई है इन सदियों में।
पर नहीं बदला,गरीब का इंसान से सामान में बदलना।
आदमी का आदमी की ही, खरीद-फरोख्त करना।
इंसान को गिरते और पैसे को उठते देखता रहता हूँ।
ज़मीर बिक चुका है मेरा भी,अतः मौन ही रहता हूँ।
