औरत को वहम है कि
औरत को वहम है कि
औरत को यह वहम है कि
वह मर्द को बदल सकती है,
इसलिए जब वह प्रेम में पड़ती है,
तो वह कुछ भी नहीं देखती।
उसके हृदय में मात्र प्रेम पनपता है,
और वह प्रेम के ऐसे पड़ाव पर पहुंच जाती है
जहां पर वह धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खो बैठती है,
और अपनी पहचान तक भूल जाती है।
वह विश्वास करने लगती है कि उसका निश्छल प्रेम
एक दिन मर्द को पिघलने पर मजबूर करेगा,
और उसके प्रेम से मर्द में बदलाव आएगा।
फिर एक दिन उसे यह समझ आता है कि
इस बदलाव से जो प्रेम मिलता है
वह प्रेम नहीं, बल्कि सिर्फ सौदा होता है।
एक ऐसा सौदा जो सिर्फ कुछ पल के लिए
असीम प्रेम का एहसास देता है लेकिन
उसके बदले उसकी पहचान छीन लेता है,
और वह खाली हाथ रह जाती है।
अब यहां पर मर्द को गलत ठहरना भी सही नहीं है
क्योंकि औरत ही मूर्ख है।
शुरुआत से ही सब कुछ उसके सामने स्पष्ट होता है
उसे पता होता है कि उसे प्रेम नहीं मिल सकता
पर फिर भी वह समर्पण दिखाकर प्रेम लुटाती है
और सोचती है जैसा प्रेम वह करती है
उसे भी एक ना एक दिन वैसा ही प्रेम मिलेगा।
सब कुछ स्वच्छ जल की भाँति उसके सामने होता है,
पर वह शांत पानी में कंकड़ मारकर
सब कुछ अशांत करने में लगी रहती है।
जाने क्यों,
औरत केवल औरत अपने दृढ़ निश्चय को ही
सच मानने की कोशिश करती रहती है!
वह सदैव इसी वहम में जीती है कि
प्रेम से मर्द को जीता जा सकता है।
उसका यह वहम हर बार टूटता है पर
वह फिर से एक और कोशिश करती है
इस आस में कि शायद थोड़ा और प्रेम हो तो
तो मर्द को जीता जा सकता है।
