औरत बेचारी, ज़माने की मारी
औरत बेचारी, ज़माने की मारी
डरती थी पहले, आगे की जिन्दगी से
जब शादी की बात होती थी, और
मैं, अपनी माँ को देखती थी
सुबह से शाम तक काम में खटते,
देर रात तक जगते
जानती नहीं थी, ये कब सोती है,
क्या बिना सोये रहती है?
कभी उन्हें बैठे नहीं देखा,
दोस्तों के साथ हँसते भी नहीं देखा,
कपड़े धोना, प्रेस करना,
खाना बनाना, परोसना
बुहारना, समेटना, बर्तन माँजना
गेहूँ फटकना, धुलना, सुखाना
(आप पढ़ कर थक गए? वो कर के नहीं थकती थीं)
ऐसे ही कामों में हर दिन बीत जाता था
माँ आराम भी करती है,
कोई नहीं जानता था
पापा और हम बच्चों के सारे काम
चोट, बीमारियाँ, लड़ाई- झगड़े, इम्तिहान
पूजा - हवन, तीज-त्यौहार
रिश्ते-नाते, अतिथि - मेहमान,
टोले-मोहल्ले के कितने ही ताम-झाम...
सब कर लेती थीं बिना थके,
स्वेटर बुनतीं, सिलाई- कढ़ाई करतीं,
नखरे उठातीं, बिना उफ्फ़ किये….
ऐसी ज़िन्दगी मैं कैसे जीयूँगी?
इन्सान हूँ, मशीन कैसे बनूँगी?
सशंकित रहती, होती थी परेशान
माँ, बीवी होना कहाँ है आसान?
देखती थी माँ को, सैकड़ों काम हैं
`पर यहाँ गृहिणियां निकम्मेपन के लिए बदनाम हैं,ʼ
ब्याह हुआ मेरा, मैं ससुराल आयी
गृहस्थी से जुझती थी, डरी, घबराई,
घर- ससुराल , बाल - बच्चों में डूब गयी
अपनी अस्मिता अपना अक्स भी भूल गयी
मुद्दतों बाद आईना देखा
वहाँ 'मैं' नहीं "माँ" दिख रही थी…
मेरी तबदीली माँ में चुपचाप हो गई थी
एक पीढ़ी जहाँ से गुजरी थी,
दूसरी वहीं पहुँच गयी थी ...
जीवन का ये पड़ाव नया था,
इसे कैसे जीना है? अभी समझना था...
बच्चे वयस्क हुए,
नौकरी पर निकल गये,
तब मैंने मोबाइल और कंप्यूटर का साथ पकड़ा
इन्टरनेट या डेटा का नहीं रहा कोई लफड़ा
कविता-कहानियाॅं नोट-पैड पर लिखती हूँ ,
ऑनलाइन पत्रिका, ई-बुक में छपती हूँ
गूगल से पढ़ती हूँ,
शॉपिंग, ऑनलाइन करती हूँ
मीटिंग और कवि सम्मेलन, गूगल-मीट पर करती हूँ
घर के काम- काज भी साथ-साथ चलते हैं
औरतों से ऐसे काम कभी कहाॅं छूटते हैं?
दस हाथों के काम, दो हाथ निबटाते हैं
फिर भी ये बेदर्द ज़माना ये मर्द !!!
महिलाओं को, निकम्मा-निठल्ला मानते हैं।