अत्याचार
अत्याचार
वाणी से भी अत्याचार होता है
एक लब्ज जब हृदय की
गहराइयों में पहुँचते ही
तीर की तरह चुभता
और बेबस कर देता आँखों को
धकेल देता अश्रु धार को
आँखों की पलक तक
बताने को अत्याचार
की परछाई को
दिखाने कल ही
कुठारघात किया
तुम्हारे तीखी वाणी ने
मेरे तन मन को झकझोर दिया
मुझे निःसहाय किया
तोड़ दिया मन को
तन को निष्प्राण किया
अत्यचार बन्द कमरे में
चीखती दरवाजो के अंदर
खिड़कियों के सूराखों
से निकलती दबी
दबी आवाजें
बताती है अत्याचार
के शिखर को
चेहरे पर पड़े काले धब्बे
आँखे में सूजन
होठों पर ख़ामोशी
खुशनुमा मौसम में भी
बेचैनी, ढूँढती फिरती
अपने अतीत के
स्वछन्द फिजाओं को
जहा सकूँ चैन था
किसी का भय नहीं
एक रोटी में ही
भूख मिटती थी
अत्याचार से भी
भूख प्यास नींद चैन
सब मिट सा गया है
एक जिन्दा लाश ही
मेरा जीवन रह गया है।