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Chhabiram YADAV

Abstract

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Chhabiram YADAV

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हँसना मना नहीं है

हँसना मना नहीं है

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सर्दी की गुनगुनी धूप

तन को सेकती

बहुत सकूँ देती

बाहर बैठ, हाथ में

अख़बार को पढ़ते

खो जाते अतीत के

पल में


जब खुद एक परिंदे 

की तरह थे 

आज़ादी थी, ख़ुशी थी

बंधन कोसों दूर था

मेरी परछाईं से 

मन ही मन में 

एकाएक कुछ भूले पल

आज याद आये 


मैं मुस्कुरा के ही 

अखबार से चेहरा को

छुपाया, मन को समझाया

अब तो बंधन में हूँ

कुछ जंजीरें जकड़ी है

मेरे तन और मन को

जो लगा कर रखी है

पहरा हर क्षण

ये भी जीवन का एक रूप है

और नहीं तो क्या

हँसना मना नहीं है

पर मजबूर हूँ...



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