गजल
गजल
अब तो लोग भी बिन आग जला करते है
ओ खुश क्यूँ इतना है इसपे गिला करते है।।
वाह रे इंसान तेरे इतने चेहरे देख लिए मैंने
अपना चेहरा याद आये ऐसी कला करते है।।
भूख से मरते दम घुटते देखा है माँ बाप को
निवाला एक जून के, गैरों पर पला करते है।।
तुम लाख आशियाँ बना लो नियत बदल कर
तुम्हारी रूह में ही बही खाते लिखा रहते है।।
वक्त मिले गर ज़माने की शोहरत कमाने से
दरवाज़े की दहलीज भी कुछ दर्द बयाँ करते हैं।।
ऐसे ही नहीं छू लिए खुद बुंलदियों को
कुछ लोग ज़माने में गैरों को जिंदा करते है।।
मेरे गुलशन में गुलों की दरकार नहीं छबि
गमे जिंदगी में बहार मैकदे में हुआ करते है।।