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Chhabiram YADAV

Abstract

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Chhabiram YADAV

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खुदगर्जी

खुदगर्जी

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द्वेष ही द्वेष है अब मन में कहाँ देश है

खुदगर्जी मे दूषित ये क्यूँ परिवेश है


अपनी चाहत क्या हम दिखाए तुम्हे

तुमने देखा बहुत तो क्या बचा शेष है


चंद पैसो के खातिर क्यूँ गिरा इस कदर

तेरी इज्जत का मिलता नहीं अवशेष है


बूढ़ी माँ भी लगी क्यूँ दुश्मनों परिवार की तरह

बाप से ही किया रोज क्यूँ क्लेश है


साथ तेरे जहाँ से न जायेगा कुछ

किस भरम में है ऐंठा ये सन्देश है


तेरी काया तुझे एक दिन छोड़ जायेगी

सब कुछ पायेगा वहीँ जो किया पेश है


ना बन मूर्ख जरा अपनी आँखों को खोल

जैसा करनी तेरी वैसे धूमिल तेरा भेष है।


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