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Rashmi Singhal

Abstract

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Rashmi Singhal

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अश्रु-जल

अश्रु-जल

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माँग कर नैनों से नीर

बंजर मन भिगो डाला,

अश्रु के इस जल से,मैंने

भारी मन को धो डाला,


ओझल हो चुकी थीं राहें

था चहुँ ही ओर कुहासा,

मेरे हिस्से में रोशनी का

नहीं था असर जरा सा,


आते मौसम,जाते मौसम

रिक्त मुझे कर जाते ओर,

मेरे अकेलेपन पर हंसकर

भरते थे मुझमें तन्हाई घोर,


चलते रहे युद्ध भावों के

कोई भी,जीता दाव नहीं,

सबके हाथों में खंजर थे

हारा कोई सा घाव नहीं,


छाले पड़े दिल के पैरों में

धडकनें दौड़ लगाती थी,

मिटे ये मृत्यु-तुल्य जीवन

सासें यह हौड़ लगातीं थी,


बन चुकी थी आँखें पत्थर

पत्थर बन चुका था मन,

बिन आँसु के मानो मेरा

बुत सा बन गया था तन,


देकर नीर मुझे नैनों ने,मुझ

पर बड़ा अहसान किया,

मेरे बंजर पड़े मन को

अश्रुओं का अनुदान दिया,


क्योंकि,रो लेने से ही मन

का बोझ हल्का होता है,

आँखों का गंगाजल जग

की निष्ठुरता धोता है।


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