मैं हिन्दी हूँ
मैं हिन्दी हूँ
मैं हिन्दी हूँ,
कागज के खेतों में उगती,
शब्दों के बीजों से बनती हूँ;
स्याही की बूँदों से सिंचित,
कलम के हल से जनती हूँ;
नाना 'वर्ण' के फूल खिलाती,
भाषा की फसल में फलती हूँ।
मैं हिन्दी हूँ,
'संस्कृत' की गोद में खेली,
वाणी में संस्कारों को चुनती हूँ;
मुँह की शोभा बड़ाती,
'छंदों' में मकरंद को भरती हूँ;
'अलंकार' के गहने पहनती,
जीवन को अलंकृत करती हूँ।
मैं हिन्दी हूँ,
भाषा के बाजार में अग्रज,
शब्द-अर्थ के व्यापार चलाती हूँ;
'राजकाज' में काम आती,
'राष्ट्रभाषा' बनना चाहती हूँ;
जन-जन की भाषा बनूँ,
कुछ ऐसा करना चाहती हूँ।
मैं हिन्दी हूँ,
बस, हिन्द में बसना चाहती हूँ।
मैं हिन्दी हूँ...।