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अनिल कुमार केसरी

Abstract

4.5  

अनिल कुमार केसरी

Abstract

मैं हिन्दी हूँ

मैं हिन्दी हूँ

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353


मैं हिन्दी हूँ,

कागज के खेतों में उगती,

शब्दों के बीजों से बनती हूँ;

स्याही की बूँदों से सिंचित,

कलम के हल से जनती हूँ;

नाना 'वर्ण' के फूल खिलाती,

भाषा की फसल में फलती हूँ।


मैं हिन्दी हूँ,

'संस्कृत' की गोद में खेली,

वाणी में संस्कारों को चुनती हूँ;

मुँह की शोभा बड़ाती, 

'छंदों' में मकरंद को भरती हूँ;

'अलंकार' के गहने पहनती,

जीवन को अलंकृत करती हूँ।


मैं हिन्दी हूँ,

भाषा के बाजार में अग्रज,

शब्द-अर्थ के व्यापार चलाती हूँ;

'राजकाज' में काम आती,

'राष्ट्रभाषा' बनना चाहती हूँ;

जन-जन की भाषा बनूँ,

कुछ ऐसा करना चाहती हूँ।


मैं हिन्दी हूँ,

बस, हिन्द में बसना चाहती हूँ।

मैं हिन्दी हूँ...।


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