मैं कलम हूँ
मैं कलम हूँ
मैं खड़ा हूँ...,
हर आवाज़ को आवाज़ देने के लिए,
मौन को शब्द देकर,
तुम्हारी बात कहने के लिए।
मैं लड़ा हूँ...,
अन्याय की हर बग़ावत में,
तुम्हारी ढाल बनकर,
तुम्हारे जीत जाने तक।
मैं डटा हूँ...,
तुम्हारे संघर्ष में,
विद्रोह की धधकती ज्वाला लेकर,
हर चुप्पी में जान भरने को।
मैं बोलता हूँ...,
तुम्हारे मौन में आवाज भरकर,
कलम की तीखी नोक से,
हर शब्द को सुने जाने तक।
मैं कहता हूँ...,
शासन की अनीति पर,
तुम्हारे दबे-कुचले पक्षपात को,
सही पक्ष तक लाने के लिए।
मैं आवाज हूँ...,
तुम्हारे भीतर डरी-सहमी चुप्पी को,
शोर का बारुद बनाकर,
कैद से बाहर लाने के लिए।
मैं कलम हूँ...,
तुम्हारे हर मुकदमे का दस्तावेज,
सबूत की तरह,
दुनिया को दिखाने के लिए।