चाह यही
चाह यही
चाह नहीं सोने के ताजों की,
आगे-पीछे चलने वाले नौकर-प्यादों की।
ख़्वाब नहीं सोने की लंका हो,
पहचान रहे, घीस-घीस के चमका हो।
सबके दिल में जगह बनाऊँ,
चाह यही, अंत समय तक कलम चलाऊँ।
जन-जन तक शब्दों में पहुँचूँ,
कविता में गाऊँ, सबके जीवन में चहकूँ।
यथार्थ लिख सकूँ इस दुनिया का,
कुछ ऐसी ताकत, कुछ ऐसा साहस चाहता।
सबके सुख-दुख को शब्दों में कह पाऊँ,
चाह यही, दुनिया का कलमकार कहलाऊँ।
माटी का तन, माटी में मिल जाता,
जीवन वही, जो औरों के काम है आ जाता।
कुछ ऐसी छवि, कुछ ऐसा नाम कमाऊँ,
चाह यही, मरकर भी साहित्य में पहचाना जाऊँ।
