आदि सृजनकार
आदि सृजनकार
हृदय में प्यार का सागर,
त्याग की जलती ज्वाला है।
अपने अरमानों को फाँसी दे,
जिसने सारा घर-बार संभाला है।
भीत हृदय का सुदृढ़ संबल,
कांटों में कोमल फूलों की माला है।
सागर के जल-सी ममता उसमें
इस जग का वह रोशन उजाला है।
भूखा रहा उदर, उसका भी,
पर, पूत के मूंह भरपूर निवाला है।
बलिदानों से महिमा मंड़ित,
कथा-पुराणों में सुशोभित,
लक्ष्मी-दुर्गा का वह अवतार है।
काल से टकराती काली,
पतिव्रता सती, गृहस्थी धर्म को निभाती,
प्रेम-स्नेह से हृदय असीमित पारावार है।
दुख-सुख में सबके संग-संग,
सबकी विपदा में हरदम हिस्सेदार है।
कालघुँट पी, नीलकंठ-सी,
सृष्टिकाल से आदि सृजनकार है।
कष्ट में हाथ पकड़ सीने से लगाती,
खुद के कष्टों को अंतर छिपाती,
इस जग की सुन्दरता में माँ,
सृष्टि का सुन्दरतम दर्पण,
वत्सल जल का निर्झर निरंतर,
ममतामय अम्बर अपरंपार है....।
