अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि ...
अपनों के बीच खुद को पाया अकेला ¡
शर्म आती है इन अपनों को अपना कहते हुए ¡
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि ...
नासूर बन गए दिल और दिमाग के ज़ख्म
पराये को ग़र अपनाती तो शायद बच जाती मैं
अब तो डर लगने लगा है किसी को अपना बनाने में
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि ...
कौन अपना कौन पराया ?
ये इंसान तो जानवरों से भी गया गुज़रा ...
बेज़ुबान जानवरों में तो इंसानियत देखी मैने.
पर इंसान में इंसानियत कहाँ खो गयी ???
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि ...
न जिया जाता है ...
न मरा ही जाता है ...
अपनों को ही मालूम था ...
दिल में छेद कहाँ है ?
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि ...
कहते थे सब कभी !!
परायों से न करना दिल कि बातें !!
उनसे छुपाना हर बातें...
वो कभी साथ न देंगे तेरे ...
पर मुझे तो इन्ही अपनों ने किया घायल
अब शिकायत किस से करें ???
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि...
वक़्त के साथ अपने भी बदल जाते हैं
रंग बदलते हैं अपने खो जाते हैं
भीड़ में देखा तो पराये भी पहचान में आये...
न पहचान पाए तो वो अपने हि थे
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि ...
काश ज़ख्म किसी पराये ने दिए होते
तो बर्दाश्त कर लेते हम
जिन अपनों से प्यार था
वो आज सब सौदागर और साहूकार निकले
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि...
आज मालूम पड़ा !!
दोष उन अपनों में न था
दोष तो मुझ में ही कहीं था !!
जिनको में अपना समझ रही थी !!
वो तो मुझे कबका पराया कर चुके थे
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि ...
अच्छा हुआ इन अपनों के ज़ख्म ने
दिखा दिया मुझे रस्ता
मेरा प्रभु ही मेरा अपना
ना दूसरा कोई मेरा अपना
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि...
© धरित्री मल्लिक्