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chandraprabha kumar

Romance

4.0  

chandraprabha kumar

Romance

अपना साथी

अपना साथी

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खो दिया मैंने तुमको पाकर

या कि कभी 

पाया ही न था,

ओह ! वह तुम्हारी प्रार्थना 

वह दूर से भेजी तुम्हारी पाती। 

याद आती है मुझको 

तेरी लिखी वह एक पंक्ति,

“साधारण सा ही सही 

पर तुम्हारा हूँ 

तुम्हारा बिल्कुल अपना

तुम्हारा ही। “

सच मानो, 

भरोसा किया था मैंने

उसको अपना 

समझा था मैंने,

बड़ा ही माना था उसको

वैसे ही करके लिया था 

उसको। 

पर अब वह कहॉं

वह साधारण या महान् 

वही जाने,

मेरा वह अपना

अब मेरा अपना कहॉं

अब कहॉं है ?



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