रिमझिम बूंदें बरस रही थी
रिमझिम बूंदें बरस रही थी
रिमझिम रिमझिम बरस रहा था सावन,
तृप्त हुई थी धरती हुआ मेरा मनभावन,
धरती की गोद अंकुर वो महक रहा था,
रह रह कर ऊपर की ओर सरक रहा था,
रिमझिम रिमझिम सावन बरस रहा था,
कितने मरुस्थल की प्यास लिए बैठे थे,
हम तो बरसात की सौगात लिए बैठे थे,
आशा ही सम्बल होता है इस जीवन का,
हम तो आशा का आकर्षण लिए बैठे थे,
हम रिमझिम रिमझिम सावन लिए बैठे थे,
विकल विरहिनी बरसा किसको ढूंढ रही?
अपनी रिमझिम बूंदे किस पर सजा रही?
अरमानों के इस आंगन में एक बूंद चाहिए,
देखो रिमझिम बूंदों को वो कबसे बुला रही,
बूंदे मन के आंगन में एक विश्वास जगा रही,
आंख खुली तो रिमझिम बूंदे बरस रही थी,
जैसे स्नेह भरी मनुहारों से वो बुला रही थी,
सुधियों के कोलाहल में ध्यान उनका आया,
सौरभ क्यारी में रिमझिम बूंदें बरस रही थी,
देखा तो वो अपनी उलझी लटें संवार रही थी,
झुलस रहा था विरहा से व्याकुल मन मेरा,
यादों में रहकर वो सावन बन बरस रही थी,
बिजली चमक कर छोड़ गई थी वहाँ पुरवाई,
कहीं कली यौवन की देहरी पर सकुचा रही थी,
रिमझिम- रिमझिम-सी बूंदें वहाँ बरस रही थी,
रिमझिम- रिमझिम-सी बूंदें वहाँ बरस रही थी।