अपना दर्द अपनी तकलीफें
अपना दर्द अपनी तकलीफें
ज़ख्मों से गुज़रते कदम दर कदम
अपने से लगने लगे गैर भी
मरहम से एतराज़ आदत है अब
दर्द देतीं नहीं तकलीफें अभी।।
उन चेहरों से डर लगता है जिन्हें
कभी अपना कहता फिरता था
वक्त बदला कब कैसे पता नहीं
वो कर चले क्यों किनारा सभी।।
तोल मोल कर बात करते हैं जो
हर लफ्ज़ में तहज़ीब घुल कर
नकली चेहरों का परख होता तब
आईने के सीने में दिखे दरक जब भी।।
फ़रक पड़ता क्या लाख कहते फिरो
फर्क पड़ना ही तो लाजमी है ज़नाब।
उस ठहाके को ख़बर लग ही जाता
हँसी बोझ लगे होठों को जब भी।।
इशारा करते क्यों सब जानता हूँ मैं
तुम्हारा डर क्या या मज़बूरियां क्या
उनकी नज़रों से तुम्हे छुपना भी है
खुद की नज़र से ना गिरना खुद भी।।
हूँ खुश बहुत अपने आज से मैं
परवाह भी है कल की सुबह का
बीत गया वो कल दिखता भी आज
आँखें मूंद देखना चाहता जब कभी
उभर आती हैं वो दर्द तकलीफें भी।।